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Ghuisarnath Dham

●●●●●●●●▬▬▬▬▬▬۩घुश्मेश्वर उत्पत्ति۩▬▬▬▬▬●●●●●●●●●●

(शिव महापुराण के अनुसार)
श्री शिवमहापुराण में घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा इस प्रकार बतायी गई है– नदी के समीप में भारद्वाज कुल में उत्पन्न एक सुधर्मा नामक ब्रह्मवेत्ता (ब्रह्म को जानने वाला) ब्राह्मण निवास करते थे। सदा शिव धर्म के पालन में तत्पर रहने वाली उनकी पत्नी का नाम सुदेहा था। वह कुशलतापूर्वक अपने घर के कार्यों को करती हुई पति की भी सब प्रकार से सेवा करती थी। ब्राह्मण श्रेष्ठ सुधर्मा भी देवताओं तथा अतिथियों के पूजक थे। वे वैदिक सनातन धर्म के नियम का अनुसरण करते हुए नित्य अग्निहोत्र करते थे। त्रिकाल सन्ध्या (सुबह, दोपहर और शाम) करने के कारण उनके शरीर की कान्ति सूर्य की भाँति उद्दीप्त हो रही थी। वेद शास्त्रों के मर्मज्ञ (ज्ञाता) होने के कारण वे शिष्यों को पढ़ाया भी करते थे। वे धनवान तथा दानी भी थे। वे सज्जनता तथा विविध सद्गुणों के अधिष्ठान अर्थात पात्र थे। स्वयं शिव भक्त होने के कारण सदा शिव जी आराधना में लगे रहते थे तथा उन्हें शिव भक्त परम प्रिय थे। शिव भक्त भी उन्हें बड़ा प्रेम देते थे।
इतना सब कुछ होने पर भी सुधर्मा को कोई सन्तान न थी। यद्यपि उस ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण का कोई कष्ट न था, किन्तु उनकी धर्मपत्नी सुदेहा बड़ी दु:खी रहती थी। उसके पड़ोसी तथा अन्य लोग भी उसे नि:सन्तान होने का ताना मारा करते थे, जिसके कारण अपने पति से बार-बार पुत्रप्राप्ति हेतु प्रार्थना करती थी। उसके पति उस मिथ्या संसार के सम्बन्ध में उसे ज्ञान का उपदेश दिया करते थे, फिर भी उसका मन नहीं मानता था। उस ब्राह्मणदेव ने भी पुत्रप्राप्ति के लिए कुछ उपाय किये, किन्तु असफल रहे। उसके बाद अत्यन्त दु:खी उस ब्राह्मणी ने अपनी छोटी बहन घुश्मा के साथ अपने पति का दूसरा विवाह करा दिया। सुधर्मा ने द्वितीय विवाह से पूर्व अपनी पत्नी को बहुत समझाया था कि तुम इस समय अपनी बहन से प्यार कर रहीं हो, इसलिए मेरा विवाह करा रही हो, किन्तु जब इसे पुत्र उत्पन्न होगा,तो तुम उससे ईर्ष्या करने लगोगी। सुदेहा ने संकल्प लिया था कि वह कभी भी अपनी बहन से ईर्ष्या नहीं करेगी।विवाह के बाद घुश्मा एक दासी की तरह अपनी बड़ी बहन की सेवा करती थी तथी सुदेहा भी उससे अतिशय प्यार करती थी। अपनी बहन की शिव भक्ति से प्रभावित होकर उसके आदेश के अनुसार घुश्मा भी शिव जी का एक सौ एक पार्थिव लिंग (मिट्टी शिवलिंग) बनाकर पूजा करती थी। पूजा करने के बाद उन शिवलिंगों को समीप के तालाब में विसर्जित कर देती थी–
कनिष्ठा चैव पत्नी स्वस्रनुज्ञामवाप्य च। पार्थिवान्सा चकाराशु नित्यमेकोत्तरं शतम्।।
विधानपूर्वकं घुश्मा सोपचारसमन्वितम्।वृत्वा तान्प्राक्षिपत्तत्र तडागे निकटस्थिते।।
एवं नित्यं सा चकार शिवपूजां सवकामदाम्।विसृज्य पुनरावाह्य तत्सपर्याविधानत:।।
कुर्वन्त्या नित्यमेवं हि तस्या: शंकरपूजनम्।लक्षसंख्याऽभवत्पूर्णा सर्वकाम फलप्रदा।।
कृपया शंकरस्यैव तस्या: पुत्रो व्यजायत।सुन्दर: सुभगश्चैव कल्याणगुणभाजन:।।
 

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